सी.एच. कूले में आत्मदर्पण’ के सिद्धांत की समीक्षा

चार्ल्स कूले के सिद्धांत को ‘आत्म दर्पण का सिद्धांत’ कहा जाता है। कुले का मानना है कि व्यक्ति और समाज के संबंधों की स्पष्ट करने के लिए समस्त दूसरी सैद्धान्तिक व्याख्याएं भ्रमपूर्ण है।

वास्तव में समाज और व्यक्ति को एक-दूसरे से पृथक् करके उनके बारे में कोई वैज्ञानिक विवेचना नहीं की जा सकती। एक मनोवैज्ञानिक के रूप में कूले ने स्वयं अपने बच्चों के व्यवहारों का अध्ययन करके “आत्म दर्पण की प्रक्रिया” के रूप में समाजीकरण की प्रक्रिया को स्पष्ट किया।

कूले का कहना है कि “छोटे बच्चों के व्यवहारों का अवलोकन करने से स्पष्ट होता है कि बच्चा आरम्भ से ही अपने माता-पिता के शब्दों पर इतनी प्रक्रिया नहीं करता जितना कि उनकी भाव-भंगिमाओं पर। किसी विशेष व्यवहार पर जब ‘मा’ कहती है, ‘नहीं’। तब बच्चा तुरंत उसके चेहरे का भाव बढ़ने का प्रयत्न करता है, कि वास्तव में माँ उससे क्या कहना चाहती है।

इस आधार पर कूले ने दो परिकल्पनाओं के द्वारा अपने विचारों को स्पष्ट किया है-

(i) पृथक तो यह कि बच्चे में आत्मदर्पण की प्रक्रिया जंक लेने के तुरंत बाद से आरम्भ हो जाती है-

(ii) दूसरी यह कि हममें से प्रत्येक व्यक्ति अपने बारे में दूसरों की अभिवृत्तियों तथा विचारों के संदर्भ में ही एक विशेष धारणा को विकसित करता है –

अन्य व्यक्तियों की अभिवृत्तियों के अनुसार व्यक्ति स्वयं के संबंध में जो धारणा बनाता है, वही उसका ‘स्व’ अथवा ‘आत्म’ होता है। अतः कूले के विचार हैं कि ‘व्यक्ति में आत्म’ (Self) तथा ‘सामाजिक चेतना’ का विकास पारस्परिक सम्पर्क से होता है। सम्पर्क के द्वारा व्यक्ति एक-दूसरे के विचारों को समझता है और उन्हीं के आधार पर अपने बारे में एक धारणा बनाता है। यही धारणा उसका ‘आत्म’ (Self) होती है। इस प्रकार कूले ने अपने विचारों को ‘आत्म’ (Self) और अन्तक्रिया की धारणा द्वारा स्पष्ट किया है। ‘स्व’ अथवा ‘आत्म’ को समझने के लिए कूले ने व्यक्ति की मानसिक स्थिति को तीन दशाओं द्वारा स्पष्ट किया है –

(i) सबसे पहले व्यक्ति में यह धारणा विकसित होती है-कि दूसरे व्यक्ति उसके बारे में कैसा सोचते हैं।

(ii) अपने बारे में अन्य दूसरों के विचारों का मूल्यांकन करने में वह या तो गर्व का अनुभव करता है अथवा लज्जा था।

(iii) इन धारणाओं के अनुसार वह अपने व्यक्तित्व का मूल्यांकन दूसरों के दृष्टिकोण से करने लगता है।अतः इस प्रकार अन्य व्यक्तियों के सम्पर्क में आने के परिणामस्वरूप व्यक्ति उन्हीं के दृष्टिकोण के अनुसार अपने बारे में जो धारणा बनाता है, उसी को फूले न व्यक्ति का ‘ आत्म’ कहा है। इसका आशय यह है कि ‘आत्म’ का विकास सामाजिक अन्तः क्रिया के फलस्वरूप उत्पन्न होता है। ‘आत्म’ का विकास हो जाने से व्यक्ति स्वयं से ही प्रश्न पूछता है, और स्वयं ही उसका उत्तर भी देता है। अतः कूले के अनुसार “आत्म विचार अथवा विचारों की एक व्यवस्था है, जो

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