जयशंकर प्रसाद का जीवन परिचय एवं महत्वपूर्ण लेख

By Arun Kumar

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जयशंकर प्रसाद का जीवन परिचय एवं महत्वपूर्ण लेख
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जयशंकर प्रसाद का जीवन परिचय: जयशंकर प्रसाद का जन्म सन् 1890 ई० में काशी के प्रसिद्ध वैश्य परिवार में हुआ था। प्रसादजी के पिता देवीप्रसाद, स्वयं साहित्यप्रेमी थे। इस प्रकार प्रसादजी को जन्म से ही साहित्यिक वातावरण प्राप्त हुआ। प्रसादजी ने बाल्यावस्था में ही अपने माता-पिता के साथ देश के विभिन्न तीर्थ स्थानों की यात्रा को।

जयशंकर प्रसाद का जीवन परिचय

नामजयशंकर प्रसाद
पिता का नामदेवीप्रसाद
जन्म30 जनवरी, 1890 ई0
जन्म-स्थानकाशी
प्रारम्भिक शिक्षाअंग्रेजी, फारसी, उर्दू हिन्दी व संस्कृत का स्वाध्याय।
लेखन-विद्याकाव्य कहानी, उपन्यास, नाटक, निबन्ध।
भाषा-शैलीविचारात्मक, अनुसन्धानात्मक. इतिवृत्तात्मक भावात्मक एवं चित्रात्मका
प्रमुख रचनाएँचन्द्रगुप्त स्कन्दगुप्त (नाटक) कंकाल, तितली (उपन्यास) इन्द्रजाल, आकाशदीप (कहानी- संग्रह प्रेमपथिक आँसू, कामायनी (काव्य)।
निधन15 नवम्बर, 1937 ईo
साहित्य में स्थानप्रसादजी को हिन्दी-साहित्य जगत् में नाटकों के उत्कृष्ट लेखन के कारण प्रसाद युग का प्रवर्तक कहा जाता है।
कर्म भूमिवाराणसी

जीवन-परिचय

कुछ समय बाद हो इनके माता-पिता का निधन हो गया। ऐसा अवस्था में प्रसादजी की देखभाल का भार इनके भाई शम्भूरल पर आ गया। उस समय प्रसादजी क्वीन्स कॉलेज में सातवी कक्षा में पढ़ते थे। इसके पश्चात् इनकी पढ़ाई का प्रबन्ध घर पर ही कर दिया गया। प्रसादजी ने घर पर ही हिन्दी, अंग्रेजी, उर्दू और फारसी की शिक्षा प्राप्त की। दुर्भाग्य से 17 वर्ष को अवस्था में इनके भाई का भी निधन हो गया।

भाई को मृत्यु के पश्चात् प्रसादजी पर समस्त परिवार का भार आ पड़ा, परन्तु प्रसादजी ने आर्थिक चिन्ताओं से घिरे होने पर भी साहित्य लेखन से मुख नहीं मोड़ा। क्षय रोग से ग्रस्त होकर 15 नवम्बर, 1937 ई० को काशी में प्रसादजी का निधन हो गया।

साहित्यिक परिचय

प्रसादजी बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। प्रसादजी ने एक कवि, नाटककार, उपन्यासकार, कहानीकार एवं निबन्धकार के रूप में हिन्दी साहित्य की अपूर्व सेवा की। प्रसादजी ने भारतीय इतिहास एवं दर्शन का अध्ययन किया। प्रसादजी हिन्दी के महान् कवि होने के साथ-साथ सर्वश्रेष्ठ नाटककार भी थे। ‘कामायनी’ जैसे विश्वस्तरीय महाकाव्य की रचना करके प्रसादजी ने हिन्दी साहित्य को अमर कर दिया। इन्हें हिन्दुस्तान एकेडमी और काशी नागरी प्रचारिणी ने पुरस्कृत किया। इनकी रचनाओं में भारतीय एवं पाश्चात्य विचारधाराओं की तुलनात्मक और आदर्श पार्थ का अनुपम समन्वय देखने को मिलता है। नाटक के क्षेत्र में इनके अभिनव योगदान के फलस्वरूप नाटक विधा में ‘प्रसाद युग’ का सूत्रपात हुआ।

कृतियाँ : नाटक—’चन्द्रगुप्त’, ‘स्कन्दगुप्त’, ‘अजातशत्रु, ध्रुवस्वामिनी’, ‘राज्यश्री’, ‘जनमेजय का नागयज्ञ ‘सज्जन’, ‘करुणामय’, ‘विशाख’ आदि। उपन्यास-कंकाल, तितलों और इरावती’ (अपूर्ण)। कहानी-संग्रह- ‘छाया’ ‘प्रतिध्वनि’, ‘आकाशदीप’, ‘इन्द्रजाल’ और ‘आंधी’।

निबन्ध संग्रह — काव्य-कला एवं अन्य निबन्ध।

काव्य – चित्राधार’, ‘लहर’, ‘झरना’, ‘प्रेमपथिक ‘आँसू तथा ‘कामायनी’

भाषा-शैली : भाषा–प्रसादजों ने अपने साहित्य में शुद्ध, परिष्कृत और संस्कृतनिष्ठ खड़ीबोली का प्रयोग किया है। प्रसादजी कवि पहले थे, निबन्धकार या कहानीकार बाद में। इसलिए उनकी भाषा में सर्वत्र काव्यात्मकता की झलक देखने को मिलती है। इसके अतिरिक्त गम्भीर अध्ययन एवं मनन-चिन्तन के प्रगाढ़ होने के कारण इनकी भाषा गम्भीर एवं प्रीढ़ है। सत्यता यह है कि भाषा की दृष्टि से प्रसादजी विशुद्धतावादी है। प्रसादजी ने अपनी भाषा का शृंगार संस्कृत के तत्सम शब्दों से किया है। भावमयता इनकी भाषा की प्रमुख विशेषता है। भावी और विचारों के अनुकूल शब्द इनकी भाषा में सहज रूप से आ गए हैं।

शैली— प्रसादजी ने अपने साहित्य में विविध शैलियों का प्रयोग किया है, संक्षेप में उनका वर्णन इस प्रकार है–

1. वर्णनात्मक शैली- प्रसादजी ने कहानी और उपन्यासों में घटनाओं तथा परिस्थितियों का वर्णन करने के लिए इसशैली का प्रयोग किया है। इस शैली की भाषा सरल, स्पष्ट और सरस है।

2. भावात्मक शैली – कवि होने के कारण प्रसादजी के गद्य में काव्यात्मकता का गुण भी विद्यमान है। इनका भावुकहृदय इनको प्रत्येक रचना में प्रकट हुआ है। इनकी भावात्मक शैली की भाषा सरस एवं मधुर है।

3. आलंकारिक शैली– प्रसादजी का कवि-रूप गद्य में अलंकारों का प्रयोग करके सामने आया है। इनकीआलंकारिक शैली में काव्यात्मकता, सरसता, मधुरता और शुद्धता दिखाई देती है।

4. गवेषणात्मक शैली- इस शैली में प्रसादजी की मौलिकता विद्यमान है। यह शैली वहाँ दिखाई देती है जहाँ प्रसादजीने नवीन तथ्यों का उद्घाटन किया है।

5. विचारात्मक शैली– प्रसादजी के साहित्य में इस शैली के वहाँ दर्शन होते हैं जहाँ से गहन चिन्तन में दूबे हैं। इनकी विचारात्मक शैली की भाषा गम्भीर, परिष्कृत, परिमार्जित और प्रौढ़ है।

6. चित्रात्मक शैली इस शैली का भव्य रूप वहाँ देखने को मिलता है जहाँ प्रसादजी ने किसी वस्तु व्यक्तित्व औरप्रकृति का चित्रात्मक रूप प्रस्तुत किया है। इसमें वाक्य बड़े और भाषा संस्कृतनिष्ठ है।

7. नाटकीय शैली- प्रसादजी कुशल नाटककार है; अतः इनके उपन्यासों, कहानियों और नाटकों में इस शैली कासफल प्रयोग हुआ है। इनकी यह शैली स्वाभाविक, मार्मिक और पात्रानुकूल बन पड़ी है।

हिन्दी साहित्य में स्थान- प्रसादजी का व्यक्तित्व बहुमुखी प्रतिभावाला था। प्रसादजी एक कुशल नाटककार, उत्कृष्ट कथाकार, प्रखर निबन्धकार और श्रेष्ठ कवि थे। इन्होंने अपने साहित्य में भारतीय संस्कृति का हृदयग्राही सजीव चित्रण किया।

प्रसादजी ने गद्य एवं पद्य दोनों ही विधाओं में रचना करके हिन्दी साहित्य को सशक्त तथा प्रभावशाली पथ प्रदान किया। हिन्दी साहित्य में जयशंकरप्रसाद का स्थान सर्वोपरि है।

निष्कर्ष

भारतीय सरोकार में आपका स्वागत है। लेकर माध्यम से हम ने जयशंकर प्रसाद जी के जीवन उनका मृत्यु तथा उन्होंने हिंदी साहित्य में क्या योगदान दिया उनकी गद्य एवं पद्य से संबंधित महत्वपूर्ण जानकारी इस पोस्ट के माध्यम से आपको दे दी गई है। निश्चित रूप से आपके द्वारा खोजी गई जानकारी इस पोस्ट के माध्यम से आपको मिल चुकी होगी।

FAQ

Q. जयशंकर प्रसाद की सर्वश्रेष्ठ रचना कौन सी है?

A. जयशंकर प्रसाद की सर्वश्रेष्ठ रचना कामायनी है।

Q. जयशंकर प्रसाद की कहानी कौन सी है?

A. कहानी के क्षेत्र में प्रसादजी के पाँच कथा-संग्रह प्रकाशित हुए-‘छाया’, ‘प्रतिध्वनि’, ‘आकाशदीप’, ‘आँधी’ तथा ‘इंद्रजाल’। इन पाँचों कहानी संग्रहों में प्रसादजी की कुल 70 कहानियाँ प्रकाशित हईं।

Q. जयशंकर प्रसाद की भाषा शैली क्या है?

A. भाषा– आरम्भ में ब्रजभाषा, बाद में खड़ी, शुद्ध संस्कृत, लाक्षणिक तथा मधुर भाषा।

Q. प्रसाद द्वारा लिखित नाटक कौन सा है?

A. राज्यश्री जयशंकर प्रसाद द्वारा रचित एक नाटक है।

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Arun Kumar

Arun Kumar is a senior editor and writer at www.bhartiyasarokar.com. With over 4 years of experience, he is adept at crafting insightful articles on education, government schemes, employment opportunities and current affairs.

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