नालन्दा प्राचीन भारतीय शिक्षा केन्द्रों में सर्वाधिक ख्यातिप्राप्त केन्द्र था। यह स्थान बिहार के पटना-कलकत्ता रेलवे मार्ग पर स्थित बख्तियारपुर रेलवे स्टेशन से थोड़ी दूर पर स्थित है। आज इस विश्वविद्यालय के खण्डहर वर्तमान हैं जो संकेत करते हैं कि कभी यह महान और विशाल भवन रहा होगा। यह एक विश्वविख्यात शिक्षा केन्द्र था। यह वास्तविक अर्थो में एक आवासीय विश्वविद्यालय था। इसका क्षेत्रफल एकमील लम्बा और आधा मील चौड़ा था।
इस चारों और प्राचीन थी और इनके बीच विहार थे। यहां के भवनों को चार भागों में बांटा जा सकता है-
1. विद्यार्थियों के आवास,
2. विद्याध्ययन,
3. पुस्तकालय,
4. धार्मिक भवन।
अध्ययन के लिए भवन में 300 कमरे थे। साथ ही सात बड़े-बड़े सभाभवनों का भी निर्माण हुआ जहां सामूहिक रूप से शिक्षा लिया जाता था या व्याख्यान होते थे। यहां लगभग 10 हजार विद्यार्थी शिक्षा प्राप्त करते थे। इनके अध्यापन के लिए एक हजार अध्यापक भी नियुक्त थे। इस प्रकार एक अध्यापक पर औसतन 10 विद्यार्थी थे। यहीं मठों के अवशेष प्राप्त हुए हैं। इनमें छोटे-छोटे कमरे थे जो छात्रावास के रूप में प्रयुक्त होते थे। अब तक 13 मठों के अवशेष मिले हैं। एक कक्ष में दो विद्यार्थी रहते थे। मठ में ही कुंआ और रसोईघर था। यहां भोजन सामूहिक रूप से बनता था। इनका खर्च उन 200 ग्रामों से आता था जिसे शासकों ने विश्वविद्यालय को दान में दिया था।
इस विश्वविद्यालय में प्रवेश की प्रक्रिया भी कठिन थी। प्रत्येक । संघाराम में एक ‘द्वार पण्डित’ होता था। यह द्वार पण्डित विभिन्न। विषयों का परमज्ञाता विद्वान होता था। विश्वविद्यालय में प्रवेश का इच्छुक व्यक्ति द्वार पर ही इस द्वार पण्डित के प्रश्नों का उत्तर देता था।। इस मेधा परीक्षा में उत्तीर्ण होने के बाद ही कोई व्यक्ति इसमें प्रवेश। पाता था। विश्वविद्यालय में वेद, व्याकरण, धर्मशास्त्र, वेदांग आदि। 24 विषयों की शिक्षा व्यवस्था थी। चिकित्सा और व्यापार जैसे। व्यावसायिक विषयों की भी यहां शिक्षा दी जाती थी। यहां पुस्तकालय। के दो विशाल भवन थे जिसमें अथाह पुस्तकों का भण्डार था।
यहां देश के बड़े-बड़े विद्वान अध्यापन का कार्य करते थे। इनके । विद्वता की चर्चा सारे विश्व में विख्यात थी। दूर-दूर से लोग अपनी समस्याओं के निदान और ज्ञान पिपासा को शान्त करने आते थे। यह मूलतः एक बौद्ध शिक्षा केन्द्र था। बौद्धधर्म के समग्र ज्ञान के लिए ही हवेनसांग भी यहां आया और वर्षों तक रूका रहा। कुछ वर्षों तक उसने यहां अध्यापन का भी कार्य किया। देश के अनेक राजाओं ने इस महाविश्वविद्यालय को अनुदान दिए। जिनमें वर्द्धनवंशीय हर्ष और पालवंशीय नरेश धर्मपाल विशेष उल्लेखनीय हैं