दण्डनीति : डा० यू०एन० घोषाल के अनुसार दण्डनीति दण्ड और शासन दोनों से सम्बन्धित ज्ञान है। मनु ने दण्ड की व्याख्या करते हुए लिखा है कि यह दण्ड एक प्रकार की शासन सत्ता की शक्ति है जिससे वह प्रजा पर शासन करती है दण्ड से ही प्रजा का पालन एवं रक्षा होता है जब सभी सोते रहते हैं, तब भी दण्ड जागता रहता है इस दण्ड के अतिरिक्त विधि नहीं होती।
आन्वीक्षिकी, त्रयी, वार्ता, योग क्षेम साधन दण्ड की नीति ही दण्ड नीति है। मनु ने इसे बहुत ही ऊँचा स्थान दिया है मनु ने स्पष्ट शब्दों में कहा है कि दण्ड ही वास्तव में राजा है और वही रक्षा करने वाला है। इस प्रकार राजा के कार्यों एवं राज्य के कल्याण से सम्बन्धित नियमों को दण्ड नीति कहा जाता है। यही कारण है कि पहले राजशास्त्र को प्रारम्भ में राज्य धर्म कहकर अभीहित किया गया बाद में इसको दण्डनीति कहकर भी पुकारा गया। कौटिल्य ने दण्ड शब्द का प्रयोग एक व्यापक अर्थ में किया है उनके अनुसार यह केवल भय तक सीमित नहीं है अपितु दण्ड समाज में व्यवस्था स्थापना के लिए आवश्यक होता है।
यह दण्डनीति का ही परिणाम है कि दशे के लोग उस शासन सत्ता के द्वारा निर्धारित नियमों के पालन का प्रयास करते हैं। इस प्रकार कहा जा सकता है कि सारे समाज का कल्याण दण्ड पर आधारित है। इस विधान के अन्दर राज्य के सामाजिक, राजनीतिक एवं आर्थिक सम्बन्धों को संगठित रूप से अध्ययन किया जाता है। यह राज्य का मुख्य आधार शक्ति है, यदि यह कमजोर होता है तो सबल व्यक्ति निर्बल को दबा कर उसकी सम्पत्ति का अपहरण करता है दण्ड का समुचित उपयोग होना परम आवश्यक है यदि दण्डनीति में अत्यधिक कठोरता आ जाती है तो उस स्थिति में प्रजा पीड़ित हो उठती है। तथा यदि इसके पालन में कमी या नरमी आती है तो उस स्थिति में शासन सत्ता प्रजा पर शासन करने में असमर्थ हो जाती है अतः इसका
उचित उपयोग ही प्रजा को सुखी बनाता है। प्राचीन भारतीय विचारकों ने दण्ड नीति को एक अलग विधा के रूप में स्वीकार किया है विष्णु पुराण के 18 प्रकार की विधाओं में इसका उल्लेख किया है शुक्र ने भी इसका उल्लेख किया है इस प्रकार कि अनेक राजनीतिक विधाओं का जातक ग्रन्थों एवं उपनिषद ग्रन्थों में मिलता है।
बृहस्पति ने वार्ता एवं दण्डनीति को ही विधा स्वीकार किया है इनका निर्देश है कि राजा दण्ड-नीति का अध्ययन करें और उसका अनुसरण भी करे। महाभारत के शान्ति पर्व में कहा गया है कि दण्ड के बिना त्रयी का अन्त हो जाता है धर्म का नाश हो जाता है और समाज का अस्तित्व ही नहीं रह जाता। महाभारत में उस समय को सतयुग माना गया है जबकि दण्डनीति का समुचित उपयोग होता है।
मनु ने इसे वास्तविक अर्थो में प्रजा पालक बतलाया है।