रागी (मडुवा) की खेती एवं उनके विभिन्न उत्पाद, व्यंजन

रागी (मडुवा) की खेती एवं उनके विभिन्न उत्पाद

उ०प्र० मिलेटे पुनरुद्धार कार्यक्रम के अन्तर्गत

प्रभावी बिन्दु :

  • क्षेत्र की अनुकूलता के अनुसार संस्तुत प्रजाति का शुद्ध बीज ही प्रयोग करें।
  • उपचारित बीज बोयें।
  • मृदा परीक्षण के आधार पर संतुलित उर्वरकों का प्रयोग करें।
  • फूल आने पर वर्षा के अभाव में पानी अवश्य दें।
  • कीट / बीमारियों का समय से नियंत्रण अवश्य करें।

रागी की खेती मोटे अनाज के रूप में की जाती है। रागी मुख्य रूप से अफ्रीका और एशिया महाद्वीप में उगाई जाती है, जिसको मडुआ, अफ्रीकन रागी, फिंगर बाजरा और लाल बाजरा के नाम से भी जाना जाता है। इसके पौधे पूरे साल पैदावार देने में सक्षम होते हैं। इसके पौधे सामान्य तौर पर एक से डेढ़ मीटर तक की ऊँचाई के पाए जाते हैं। इसके दानो में खनिज पदार्थों की मात्रा बाकी अनाज फसलों से ज्यादा पाई जाती है। इसके दानों का प्रयोग खाने में कई तरह से किया जाता है। इसके दानों को पीसकर आटा बनाया जाता है, जिससे मोटी डबल रोटी, साधारण रोटी और डोसा बनाया जाता है। इसके दानों को उबालकर भी खाया जाता है। इसके अलावा इसका इस्तेमाल शराब बनाने में भी किया जाता है।

रागी की खेती के लिए शुष्क जलवायु की जरूरत होती है। भारत में ज्यादातर जगहों पर इसे खरीफ की फसल के रूप में उगाते है। इसके पौधों को बारिश की ज्यादा आवश्यकता नहीं होती। इसके पौधों को समुद्र तल से 2000 मीटर तक की ऊँचाई पर सफलतापूर्वक उगाया जा सकता है। भारत में इसकी खेती के लिए उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और दक्षिणी पूर्वी राज्यों में की जाती है। इसकी खेती किसानों के लिए अधिक लाभ देने वाली मानी जाती है।

भूमि की तैयारी : पूर्व फसल की कटाई के पश्चात् आवश्यकतानुसार ग्रीष्म ऋतु में एक या दो गहरी जुताई करें एवं खेत से फसलों एवं खरपतवार के अवशेष एकत्रिक करके नष्ट कर दें मानसून प्रारम्भ होते ही खेत की एक या दो ताई करके पाटा लगाकर समतल करें।

रोकथाम :

बुवाई पूर्व बीजों को फफूँदनाशक रसायन मैकोजेब, कार्बन्डाजिम या कार्बोक्सिन या इनके मिश्रण से 2 ग्राम प्रति किग्रा. बीज दर से उपचारित करें।

खड़ी फसल पर लक्षण दिखायी पड़ने पर कार्बन्डाजिम या मैकोजेब 25 ग्राम प्रति लीटर पानी की दर से छिड़काव करें। 10 से 12 दिन के बाद एक छिड़काव पुनः करें।जैव रसायन स्यूडोमोनास फ्लोरेसेन्स का पर्ण छिड़काव (0.2 प्रतिशत) भी झुलसन के संक्रमण को रोकता है। रोगरोधी किस्मों जैसे भैरवी का बुवाई हेतु चयन करें।

कीट: कीट है। तना छेदक एवं बालियों की सूड़ी रागी की फसल के प्रमुखतना बेधक: वयस्क कीट एक पतंगा होता है जवकि लार्वा तने को भेदकर अन्दर प्रवेश कर जाता है एवं फसल को नुकसान पहुँचाता है। कीट के प्रकोप से “डेड हर्ट” लक्षण पौधे पर दिखायी पड़ते हैं।

बीजदर एवं बुवाई का समय बीज का चुनाव मृदा की किस्म के आधार पर करें। जहाँ तक संभव हो प्रमाणित बीज का प्रयोग करें। यदि किसान स्वयं का बीज उपयोग में लाता है तो बुवाई पूर्व बीज साफ करके फफूंदनाशक दवा (कार्बन्डाजिम /कार्बोक्सिन) से उपचारित करके बोएं। रागी की सीधी बुवाई अथवा रोपा पद्धति से बुवाई की जाती है। सीधी बुवाई जून के अंतिम सप्ताह से जुलाई मध्य तक मानसून वर्षा होने पर की जाती है।

छिटकवा विधि या कतार में बुवाई की जाती है। कतार में बुवाई करने हेतु बीज दर 8 से 10 किग्रा. प्रति हेक्टेयर एवं छिंटकवा पद्धति से बुवाई करने पर बीज दर 12-15 किग्रा. प्रति हेक्टेयर रखते है।कतार पद्धति में दो कतारों के बीच की दूरी 22.5 सेमी. एवं पौधे से पौधे की दूरी 10 सेमी. रखे।

रोपाई के लिए नर्सरी में बीज जून के मध्य से जुलाई के प्रथम सप्ताह तक डाल देना चाहिए। एक हेक्टेयर खेत में रोपाई के लिए बीज की मात्रा 4 से 5 किग्रा. लगती है एवं 25 से 30 दिन की पौध होने पर रोपाई करनी चाहिए। रोपाई के समय कतार से कतार व पौधे से पौधे की दूरी क्रमशः 22.5 सेमी. व 10 सेमी. होनी चाहिए।

उन्नतशील किस्में :

रागी की विभिन्न अवधि वाली निम्न किस्मों को उत्तर प्रदेश के लिए अनुशंसित किया गया है-

जी.पी.यू.-45 : यह रागी की जल्दी पकने वाली नयी किस्म है। इसकिस्म के पौधे हरे होते है जिसमें मुड़ी हुई बालियाँ निकलती है। यह किस्म 104 से 109 दिन में पककर तैयार हो जाती है एवं इसकी उपज क्षमता 27 से 29 कुन्तल प्रति हेक्टेयर है यह किस्म झुलसा रोग के लिए प्रतिरोधी है।

चिलिका (ओ.ई.बी.-10): इस देर से पकने वाली किस्म के पौधेऊँचे, पत्तियां चैड़ी एवं हल्के हरे रंग की होती है। बालियों का अग्रभाग मुड़ा हुआ होता है प्रत्येक बाली में औसतन 6 से 8 अंगुलियां पायी जाती हैं। दांने बड़े तथा हल्के भूरे रंग के होते हैं। इस किस्म के पकने की अवधि 120 से 125 दिन व उपज क्षमता 26 से 27 कुन्तल प्रति हेक्टेयर होती है। यह किस्म झुलसा रोग के लिए मध्यम प्रतिरोधी तथा तना छेदक कीट के लिए प्रतिरोधी है।

शुब्रा (ओ.यू.ए.टी. – 2): इस किस्म के पौधे 80-90 सेमी. ऊँचे होते हैजिसमें 7-8 सेमी. लम्बी 7-8 अंगुलियां प्रत्येक बाली में लगती है। इस किस्म की औसत उत्पादक क्षमता 21 से 22 कुन्तल प्रति हेक्टेयर है। यह किस्म सभी झुलसा के लिए मध्यम प्रतिरोधी तथा पर्णछाद झुलसा के लिए प्रतिरोधी है।

वी.एल.-149: इस किस्म के पौधों की गांठे रंगीन होती है। बालियाँ हल्की बैगनी रंग की होती है एवं उनका अग्रभाग अंदर की ओर मुड़ा हुआ होता है। इस किस्म के पकने की अवधि 98 से 102 दिन व औसत उपज क्षमता 20 से 25 कुन्तल प्रति हेक्टेयर है। यह किस्म झुलसा रोग के लिए प्रतिरोधी है।

खाद एवं उर्वरक का प्रयोग : मृदा परीक्षण के आधार पर उर्वरकों काप्रयोग सर्वोत्तम होता है। असिंचित खेती के लिए 40 किग्रा. नत्रजन व 40 किग्रा. फास्फोरस प्रति हेक्टेयर की दर से अनुशंसित है। नत्रजन की आधी मात्रा व फास्फोरस की पूरी मात्रा बुवाई पूर्व खेत में डाल दें तथा नत्रजन की शेष मात्रा पौध अंकुरण के 3 सप्ताह बाद प्रथम निदाई के उपरांत समान रूप से डाले। गोबर अथवा कम्पोस्ट खाद (100 कुन्तल प्रति हेक्टेयर) का उपयोग अच्छी उपज के लिए लाभदायक पाया गया है। जैविक खाद एजोरपाइरिलम बेसीलेन्स एवं एस्परजिलस अवामूरी से बीजोपचार 25 ग्राम प्रति किग्रा. बीज की दर से लाभप्रद पाया गया है।अन्तःसस्य क्रियाएं : रागी की फसल को बुवाई के बाद प्रथम 45 दिनतक खरपतवारों से मुक्त रखना आवश्यक है अन्यथा उपज में भारी गिरावट आ जाती है। अतः हाथ से एक निदाई करें अथवा बुवाई या रोपाई के 3 सप्ताह के अंदर 2,4-डी सोडियम साल्ट (80 प्रतिशत) की एक किया. मात्रा प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करने से चैड़ी पत्ती वाले खरपतवार नष्ट किये जा सकते हैं। बालियाँ निकलने से पूर्व एक और निराई करें.

पौध संरक्षण :

रोग-व्याधियाँ: फफूँदजनित झुलसन एवं भूरा धब्बा रागी की प्रमुख रोग- व्याधियां है जिनका समय पर निदान उपज में हानि कोरोकता है।

झुलसा : रागी की फसल पर पौद अवस्था से लेकर बालियों में दाने बनने तक किसी भी अवस्था में फफूँदजनित झुलसा रोग का प्रकोप हो सकता है। संक्रमित पौधे की पत्तियों में भिन्न-भिन्न माप के आँख के समान या तर्कुरूप धब्बे बन जाते हैं, जो मध्य में धूसर व किनारों पर पीले-भूरे रंग के होते हैं। अनुकूल वातावरण में ये धब्बे आपस में मिल जाते हैं व पत्तियों को झुलसा देते हैं।

बालियों की ग्रीवा व अंगुलियों पर भी फफूँद का संक्रमण होता है। ग्रीवा का पूरा या आंशिक भाग काला पड़ जाता है, जिससे बालियाँ संक्रमित भाग से टूटकर लटक जाती है या गिर जाती है। अंगुलियां भी आशिक रूप से या पूर्णरूप से संक्रमित होने पर सूख जाती है जिसके कारण उपज की गुणवत्ता व मात्रा प्रभावित होती है।

रोकथाम :

बुवाई पूर्व बीजों को फफूँदनाशक दवा मैकोजेब, कार्बन्डाजिम या कार्बोक्सिन या इनके मिश्रण से 2 ग्राम प्रति किग्रा. बीज दर से उपचारित करें।खड़ी फसल पर लक्षण दिखायी पड़ने पर कार्बेन्डाजिम या मैकोजेब 2.5 ग्राम प्रति लीटर पानी की दर से छिड़काव करें। 10 से 12 दिन के बाद एक छिड़काव पुनः करें।जैव रसायन स्यूडोमोनास फ्लोरेसेन्स का पर्ण छिड़काव (0.2 प्रतिशत) भी झुलसा के संक्रमण को रोकता है। रोग प्रतिरोधी किस्मों जैसे जी.पी.यू. 45, चिलिका, शुद्रा, भैरवी, वी.एल. 149 का चुनाव करें।

भूरा धब्बा रोग : इस फफूँदजनित रोग का संक्रमण पौधे की सभी अवस्थाओं में हो सकता है। प्रारम्भ में पत्तियों पर छोटे-छोटे हल्के भूरे एवं अंडाकार धब्बे बनते है। बाद में इनका रंग गहरा भूरा हो जाता है। अनुकूल अवस्था में ये धब्बे आपस में मिलकर पत्तियों को समय से पूर्व सुखा देते हैं। बालियों एवं दानों पर संक्रमण होने पर दानों का उचित विकास नहीं हो पाता, दाने सिकुड़ जाते है, जिससे उपज में कमी आती है।

रोकथाम

1. कीटनाशक रसायन डाइमेथोएट 1 से 1.5 मि.ली. प्रति लीटर पानी के हिसाब से छिड़काव करें।

2. कीट प्रतिरोधक किस्म चिलिका को बुवाई हेतु चयन करें।

बालियों की सूड़ी: इस कीट का प्रकोप बालियों में दाने बनने के समय होता है। भूरे रंग की रोयेंदार इल्लियां रागी की बंधी बालियों को नुकसान पहुंचाती है जिसके फलस्वरूप दाने कम व छोटे बनते है।

रोकथाम :

1. क्यूनालफॉस 1.5 प्रतिशत डी.पी. या थायोडान डस्ट (4 प्रतिशत) का प्रयोग 24 किग्रा. प्रति हेक्टेयर की दर से करें।

रागी (मड़वा) से बनाये जाने वाले स्वादिष्ट व्यंजन

रागी बालूशाही

सामग्री: रागी का आटा-25 ग्राम, मैदा-25 ग्राम, घी-2 चम्मच दही-50 ग्राम, बेकिंग पावडर- 1 चम्मच, चीनी-100 ग्राम, इलाइची पावडर-1 ग्राम।

बनाने की विधि : रागी का आटा, मैदा,दही, नमक, बेकिंग पावडर, अच्छी तरह से मिलाकर मसलकर गूंथ लें। 30 मिनट ढककर रख दें। चीनी से दो तार की चाशनी बना लें। आटे के मिश्रण के छोटे छोटे बॉल्स बनाकर तल लें व दस मिनट चाशनी में डुबोकर रखें, निकालकर परोसें।

रागी प्याज की चपाती सामग्री:

रागी का आटा-1 कप, 1 प्याज, 2 हरी मिर्ची, हरा धनिया, नमक, दही-1/4 कप, पानी व तेल आवश्यकता अनुसार।बनाने की विधि: सामग्री में दिये गये सभी पदार्थों को अच्छी तरह मिलाकर नरम आटा गूंध ले, इस आटे के समान आकार के गोले बना लें। पैन में 1 चम्मच तेल डालकर गरम कर लें। हाथ से थापकर छोटी-छोटी रोटी बना ले, धीमी आँच पर पैन में अच्छी तरह सेंक लें, दोनों तरफ सेंक कर प्लेट में निकाल लें। अचार, दही के साथ परोसें।

रागी केक

सामग्री: रागी का आटा-100 ग्राम,अंडे-2, एसेंस-1 चम्मच, घी या तेल-100 ग्राम, बेकिंग पावडर-1 चम्मच, नमक-1/4 चम्मच, कोको पावडर-5 ग्राम, चीनी-100 ग्राम, दूध-20 मिली., कुकिंग सोडा 1/4 चम्मच ।

बनाने की विधि: ओवन को 150 डिग्री सेग्रे. तापमान पर गरम कर लें।रागी के आटे, बेकिंग पावडर, नमक, कोको पावडर व कुकिंग सोडा मिलाकर छान लें। चीनी पावडर व अंडे की सफेदी को हल्का होने तक फेंटे। इस घोल में दूध, एसेंस, अंडे का पीला भाग भी मिला दें। इस मिश्रण को मिक्सी में अच्छी तरह से फेटें व रागी के आटे के मिश्रण को मिलायें व फेंटे। चिकनाई किये केक के सांचे में डालकर 150 डिग्री सेग्रे. तापमान हुए पर 30 मिनट बेक करे। ठंडा होने पर चाकू से काटकर कतरे हुए मेवों से सजाएं।

रागी सिवाइयां की खीर

सामग्री : रागी की सिवाइयां-1 कप, सूखे मेवे, घी, पानी, चीनी, दूध, इलायची पावडर ।

बनाने की विधि : दूध को उबाल ले, सूखे मेवे, सिवाइयां घी में भून ले, उबलते हुए दूध में सिवाइयां डालकर धीमी आंच पर 3 मिनट तक पकाए, चीनी, डालकर पकने दे, जब अच्छी तरह उबल जाये, सूखे मेवे व इलायची पावडर डालकर ठंडा होने दें। ठण्डा होने पर सर्व करें।

रागी लड्डू

सामग्री: रागी का आटा-1 कप, गुड़-1/2 कप (पिसा हुआ), घी-3 चम्मच, दूध-1/4 कप, इलायची पावडर- 1/4 चम्मच, सूखे नारियल का बूरादा-4 चम्मच, सूखे मेवे आवश्यकतानुसार ।

बनाने की विधि : रागी के आटे को घी में खुशबू आने तक भूने, मेवे भी घी में तल कर इस आटे में मिला दे, गुड़ को पिघला ले, दूध गरम कर लें। सभी सामग्री को अच्छी तरह मिला लें व लड्डू बना लें।

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