एम एन श्रीनिवास जीवन परिचय, लेख एवं महत्वपूर्ण सिद्धांत..

एम एन श्रीनिवास (M.N. Sriniwas)

भैसूर नरसिम्हाचार श्रीनिवास का जन्म वर्ष 1916 में हुआ था। उन्होंने मैसूर विश्वविद्यालय से वर्ष 1936 में सामाजिक दर्शनशास्त्र में बी. ए. (ऑनर्स) किया। उनकी बहुचर्चित संस्कृतीकरण की अवधारणा ने उन्हें पूरे विश्व में प्रसिद्ध कर दिया।

वर्ष 1938 में एम. ए. की डिग्री प्राप्त की। डी फिल के लिए ‘रिलीजन एण्ड सोसायटी अमंग द कुर्ग ऑफ साउथ इण्डिया’ नामक विषय पर थीसिस लिखी, जिसमें उन्होंने सर्वप्रथम संस्कृतीकरण की अवधारणा का प्रयोग किया। वे रेडक्लिफ ब्राउन तथा बांस-प्रिचार्ड से अधिक प्रभावित थे।

श्रीनिवास का दृष्टिकोण दूसरे समाजशास्त्रियों से भिन्न था, क्योंकि वह अपने ही देश के लोगों के बारे में अध्ययन करने के लिए पश्चिमी पाठ्यपुस्तक पर निर्भर नहीं रहना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने स्वयं विभिन्न क्षेत्रों में जाकर अवलोकन करना प्रारम्भ किया। वर्ष 1940-42 में उन्होंने कुर्ग के व्यापक क्षेत्र में कार्य किया। इसके आगे उन्होंने कुर्ग में विद्यमान विभिन्न जातियों में अन्तसम्बन्धों एवं एकता के बारे में विस्तृत वर्णन किया।

श्रीनिवास का रामपुरा गाँव का संरचनात्मक – प्रकार्यात्मक अध्ययन

एम एन श्रीनिवास ने मैसूर के रामपुरा गाँव को अपने अध्ययन का आधार बनाया। वर्ष 1948 में रामपुरा गाँव की कुल जनसंख्या 1523 थी गाँव में 19 हिन्दू जातियाँ तथा मुसलमान निवास करते थे। अधिकांश जातियाँ अपने परम्परागत जातीय व्यवसाय में संलग्न थीं। इन जातियों में सुस्पष्ट सोपानक्रम पाया जाता था। प्रत्येक जाति अन्तर्विवाही थी तथा भोजन एवं सामाजिक सहवास पर लगे प्रतिबन्धों का पालन करती थी। रामपुरा में पुरुषों की तुलना में स्त्रियाँ छुआ-छूत में अधिक विश्वास करती थीं।

गाँव की जनसंख्या का आधा भाग कृषि पर आधारित था। ओक्कलिंग जाति के सदस्य ही गाँव के सबसे बड़े भू-स्वामी थे। गाँव के केवल चार स्नातकों में से तीन नौकरी तथा एक वकालत करते थे। परम्परागत रूप से ब्राह्मण तथा लिंगायत पुजारी जातियां थीं, परन्तु प्रत्येक ब्राह्मण एवं लिंगायत पुजारी का कार्य नहीं करते थे, क्योंकि वे कृषि एवं अन्य कार्यों में भी संलग्न थे।

रामपुरा में जजमानी व्यवस्था का प्रचलन था तथा कुम्हार, धोबी और नाई कृषकों की सेवा करते थे और बदले में फसल के समय उन्हें अनाज दिया जाता था। इसके अतिरिक्त तेली, टोड़ी, महुवे, गडरिये आदि नौ जातियाँ भी कृषकों को अपनी परम्परागत सेवाएँ प्रदान करती थीं। इनके सम्बन्ध केवल रामपुरा तक ही सीमित न होकर अन्य गाँवो तक फैले हुए थे। आधे अछूत परिवार कृषि का कार्य करते थे। कसाइयों को सबसे निम्न माना जाता था, जबकि ब्राह्मणों एवं लिंगायतों को उच्च स्थान प्राप्त था।

जजमानी व्यवस्था के अतिरिक्त गाँव में वस्तु-विनिमय की प्रथा का भी प्रचलन था। धान के बदले सूखी मछलियों, सब्जियों तथा पान के पत्तों का विनिमय किया जाता था।

कृषकों एवं अछूतों के बीच परम्परागत मालिक एवं नौकर के सम्बन्ध विद्यमान थे। यद्यपि जजमान एवं आसामी के सम्बन्ध एक प्रकार से समझौते के रूप में होते थे, तथापि दोनों के सम्बन्धों में घनिष्ठता पाई जाती थी।एम. एन. श्रीनिवास का मत था कि ग्रामीण संरचना में प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय तत्त्वों का समावेश होता रहा है और जीवन के धार्मिक क्षेत्र भी इन प्रभावों से ओत-प्रोत रहे हैं।

राजनीतिक दृष्टि से ओक्कलिंग प्रभु जाति थी जिसकी गांव में यथेष्ट जनसंख्या थी। इसी जाति के बुजुर्ग गांव में न्याय एवं शान्ति व्यवस्था बनाए रखने का कार्य करते थे। वे ही सभी प्रकार के पारिवारिक झगड़ों, कर्ज सम्बन्धी झगड़ों तथा विवाह सम्बन्धी मतभेदों को दूर करने का कार्य करते थे। इसी गाँव के अध्ययन में श्रीनिवास ने संस्कृतीकरण की प्रक्रिया का भी पता लगाया। संस्कृतीकरण वह प्रक्रिया है जिसमें कोई निम्न जाति किसी उच्च जाति, सामान्यता प्रभु जाति को अपना आदर्श मानकर उसके रीति-रिवाजों को • अपनाने लगती है तथा कालान्तर में परम्परा से जो स्थान उसे मिला हुआ है, उससे ऊँचे स्थान को प्राप्त करने का प्रयास करती है।

निम्न जातियाँ संस्कृतीकरण की प्रक्रिया में मांस भक्षण एवं मदिरापान जैसी खाने की परम्परा को बदलकर शाकाहारी भोजन अपनाने लगती हैं। श्रीनिवास का रामपुरा अध्ययन संस्कृतीकरण की अवधारणा के कारण ही अत्यधिक प्रसिद्धि प्राप्त कर पाया है।

संस्कारों के निम्नांकित सामाजिक प्रकार्य होते हैं

  • सामाजिक जीवन में समरूपता उत्पन्न करना।
  • व्यक्ति की भावनाओं व स्थायी भावों को परिष्कृत करना और उन्हें अभिव्यक्ति प्रदान करना।
  • समाज के सदस्यों के आचरण को नियमित तथा नियन्त्रित करना। संस्कृति को सुरक्षित रखना।
  • संस्कृति को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में हस्तान्तरित करना ।
  • प्राकृतिक प्रकोप या दुसाध्य रोग जैसी असामान्य परिस्थितियों में व्यक्ति कोधीरज बँधवाना और उसके निराकरण की आशा प्रदान करना।

इस प्रकार, संस्कार एकीकरण सम्बन्धी प्रकार्यों की पूर्ति करते हैं। चीन की महान् पुस्तक ‘बुक्स एण्ड राइट्स’ में सही लिखा है कि यह धार्मिक कृत्य जनसाधारण को एक-दूसरे के साथ जोड़ने के बन्धन हैं। यदि इन बन्धनों को काट दिया जाए, तो जनसाधारण भ्रमित होकर बिखर जाएँगे। इसीलिए एम. एन. श्रीनिवास ने संरचनात्मक प्रकार्यात्मक परिप्रेक्ष्य को ग्रामीण वास्तविकता को समझने में सहायक बताया है।

नोट – एम. एन. श्रीनिवास के अनुसार, जाति गंगा के मैदान में पोषित भारतीय आर्य संस्कृति का ब्राह्मण बालक है और इसलिए भारत के अन्य भागों में अन्तरित है।

श्रीनिवास की संस्कृतीकरण की अवधारणा एवं समीक्षा

संस्कृतीकरण विभिन्न जातियों (मुख्यतः निम्न जातियों) की परम्परागत जातीय स्थिति को उच्चतर करने की एक प्रक्रिया है। दूसरे शब्दों में संस्कृतीकरण सामाजिक गतिशीलता की एक प्रक्रिया है। इसमें कोई निम्न जाति अथवा अन्य समूह किसी उच्च जाति के कर्मकाण्ड, रहन-सहन एवं जीवन पद्धति का अनुकरण करके अपनी परम्परागत स्थिति को ऊँचा करने का प्रयत्न करता है।

एम. एन. श्रीनिवास के अनुसार, “संस्कृतीकरण वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा कोई निम्न हिन्दू जाति या जनजाति अथवा अन्य समूह किसी उच्च और प्रायः द्विज जाति की दिशा में अपने रीति-रिवाज, कर्मकाण्ड, विचारधारा और जीवन पद्धति को बदलता है। सामान्यतया ऐसे परिवर्तनों के पश्चात् वह जाति, परम्परा से स्थानीय समाज द्वारा, संस्तरण में जो स्थान उसे मिला है, उससे ऊँचे स्थान का दावा करने लगती है। साधारणतः बहुत दिनों तक, बल्कि वास्तव में एक-दो पीढ़ियों तक दावा किए जाने के बाद ही हुआ उसे स्वीकृति मिलती है। कभी-कभी जाति ऐसे स्थान का दावा करने लगती है, जो उसके पड़ोसी मानने को तैयार नहीं होते।”

संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि संस्कृतीकरण, सामाजिक सांस्कृतिक परिवर्तन की एक प्रक्रिया है, जिसके द्वारा कोई निम्न हिन्दू जाति किसी उच्च जाति को आदर्श मानकर अपनी परम्परागत स्थिति को ऊँचा करने का प्रयास करती है। ऊंचे स्तर का दावा उसे काफी लम्बी अवधि तक करना पड़ता है, तभी जाकर अन्य जातियाँ उसके इस दावे को स्वीकार करती हैं। अगर वह किसी ऐसे स्थान का दावा करती है, जिसे अन्य जातियाँ स्वीकार नहीं करती, तो यह जरूरी नहीं है कि उस जाति को उच्च स्तर की स्वीकृति मिल ही जाए।

संस्कृतीकरण की इस परिभाषा से इसकी निम्न विशेषताएं उभरकर सामने आती हैं।

  • संस्कृतीकरण सामाजिक गतिशीलता की एक प्रक्रिया है।
  • इसमें निम्न जातियों द्वारा उच्च जातियों का अनुकरण किया जाता है।
  • जातीय संस्तरण में निम्न जाति अपनी उच्च स्थिति का दावा करती है।
  • यह दावा काफी लम्बे समय तक करना पड़ता है, वस्तुतः दो पीढ़ी तक।
  • यह वैयक्तिक प्रक्रिया न होकर एक सामुदायिक प्रक्रिया है।
  • यह सर्वव्यापी प्रक्रिया भी है।
  • संस्कृतीकरण केवल हिन्दू जातियों तक सीमित नहीं, यह अन्य जातियोंमें भी पाया जाता है।
  • संस्कृतीकरण से केवल पदमूलक परिवर्तन होते हैं, संरचनात्मक नहीं।
  • संस्कृतीकरण के विभिन्न आदर्श प्रतिमान है।

संस्कृतीकरण तथा भारत में सामाजिक परिवर्तन

सर्वव्यापी होने के कारण संस्कृतीकरण की प्रक्रिया सदैव भारतीय समाज को प्रभावित करती रही है। निम्न जातियों तथा जनजातियों ने इस प्रक्रिया द्वारा अपना सामाजिक स्तर ऊँचा करने का सदैव प्रयास किया है तथा इसमें अनेक जातियाँ जैसे—मैसूर में हरिजन जातियाँ तथा ओक्कलिंग और कुरुम्बा जातियाँ तथा जनजातियाँ (जैसे- भील, गोण्ड, उराँव) सफल रहीं हैं। अतः इस प्रक्रिया ने अनेक निम्न जातियों की परम्परागत स्थिति को उच्च करने में सहायता दी है।

भारत में स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् निम्न जातियों की स्थिति में हुए सुधार एवं जातीय दूरी कम होने के कारण संस्कृतीकरण द्वारा सामाजिक गतिशीलता में वृद्धि हुई है। इस प्रक्रिया ने भारतीय समाज में लौकिक और कर्मकाण्डीय स्थिति के बीच दूरी कम करने का प्रयास किया है, परन्तु क्या संस्कृतीकरण सदैव सामाजिक गतिशीलता की गारण्टी है? इसका उत्तर देना अगर कठिन नहीं, तो इतना सरल भी नहीं है। यद्यपि अधिकतर इससे निम्न जातियों को अपनी परम्परागत स्थिति ऊँची करने में सफलता मिल जाती है, परन्तु फिर भी यह सदैव सामाजिक गतिशीलता की गारण्टी नहीं है।

श्रीनिवास का कहना है कि सामान्यतः संस्कृतीकरण के साथ-साथ और प्रायः इसके परिणामस्वरूप सम्बद्ध जाति ऊपर की ओर गतिशील होती है, पर गतिशीलता संस्कृतीकरण के बिना भी आ सकती है या गतिशीलता के बिना भी संस्कृतीकरण सम्भव है। इससे यह स्पष्ट पता चलता है कि संस्कृतीकरण सदैव सामाजिक गतिशीलता की गारण्टी नहीं है। श्रीनिवास ने इसकी पुष्टि अनेक विद्वानों द्वारा दिए गए उदाहरणों से की है जिससे यह पता चलता है कि संस्कृतीकरण सदैव सामाजिक गतिशीलता की गारण्टी नहीं है।

नोटरामकृष्ण मुखर्जी ने ऐतिहासिक आँकड़ों और आनुमानिक आँकड़ों दोनों का उपयोग करते हुए भारतीय ग्रामीण समाज का वर्ग संरचना में गतिकी का अध्ययन किया।

संस्कृतीकरण की उपयुक्तता

क्या संस्कृतीकरण की अवधारणा भारतीय समाज में हो रहे परिवर्तनों की व्याख्या करने में उपयुक्त है? इस सन्दर्भ में श्रीनिवास का कहना है कि यह एक परिवर्तन की प्रक्रिया है तथा इसमें जो परिवर्तन होते हैं, ये पदमूलक परिवर्तन होते हैं। इसमें संरचनात्मक परिवर्तन नहीं होते हैं और आगे वे कहते हैं कि इसमें एक जाति संस्कृतीकरण द्वारा अपनी जाति से ऊपर उठ जाति है। श्रीनिवास के इस कथन का अनेक विद्वानों ने विरोध किया और कहा कि यदि इससे केवल पदमूलक परिवर्तन ही आते हैं, तो यह सामाजिक गतिशीलता की प्रक्रिया नहीं है।

यद्यपि संस्कृतीकरण गतिशीलता को समझने में सहायक है तथा सामाजिक गतिशीलता एवं संस्कृतीकरण दोनों एक-दूसरे के बिना हो सकते हैं। ऐसा सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक परिवर्तनों से भी सम्भव हैं। श्रीनिवास का कहना है कि संस्कृतीकरण आंशिक रूप से जातीय गतिशीलता को समझने में सहायक है।

अनेक विद्वानों ने श्रीनिवास के संस्कृतीकरण की अवधारणा की आलोचना की है। उनका मानना है कि इससे गतिशीलता का केवल एक पक्ष ही स्पष्ट होता है। संस्कृतीकरण की अपेक्षा असंस्कृतीकरण अधिक प्रभावशाली है। डी एन मजूमदार ने लखनऊ के पास स्थित मोहाना गाँव में संस्कृतीकरण की अपेक्षा असंस्कृतीकरण को अधिक व्यापक एवं स्पष्ट पाया है।

कुछ विद्वानों ने जैसे पी एच प्रभु रॉबर्ट रेडफील्ड, डी एन मजूमदार ने संस्कृतीकरण शब्द को अनुपयुक्त बताया है। प्रभु ने संस्कृति ग्रहण को इससे ज्यादा अनुपयुक्त बताया है। इसी प्रकार श्रीनिवास के इस मत का कि संस्कृतीकरण सर्वदेशिक है, का विरोध किया गया और कहा गया कि यह सर्वदेशिक नहीं है। जाति जैसी बन्द एवं कठोर व्यवस्था में इससे परिवर्तन कठिन लगता है।

श्रीनिवास की इस मान्यता का कि पश्चिमी शिक्षा, औद्योगीकरण आदि संस्कृतीकरण को बढ़ावा देते हैं, का विरोध करते हुए विद्वानों ने कहा कि इस प्रक्रिया से संस्कृतीकरण की अपेक्षा असंस्कृतीकरण को दृढ़ता मिलती है। अनेक उच्च जातियों ने अपने परम्परागत आदर्श छोड़ दिए हैं।

उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट है कि संस्कृतीकरण की अवधारणा भारत में सामाजिक परिवर्तन की व्याख्या करने में अधिक सहायक नहीं है। इससे केवल आंशिक रूप से परिवर्तनों को समझा जा सकता है। एफ जी बेली तथा डी एन मजूमदार का कहना है कि संस्कृतीकरण एक असंगत तथा ढोली अवधारणा है। वास्तव में, यह अवधारणा न होकर अवधारणाओं का एक पुंज है।

श्रीनिवास की प्रमुख कृतियाँ

  • मैरिज एण्ड फैमिली इन मैसूर, 1942
  • इण्डियाज विलेज, 1955
  • सोशल चेंज इन मॉडर्न इण्डिया 1966
  • इण्डियन सोसायटी थ्रू पर्सनल राइटिंग्स, 1966
  • इण्डिया सोशल स्ट्रक्चर, 1969
  • द रिमेम्बर्ड विलेज, 1976
  • डाइमेंशन ऑफ सोशल चेंज इन इण्डिया, 1977
  • माई बरोडा डेज, 1981
  • सोशियोलॉजी इन दिल्ली, 1993
  • विलेज, कास्ट, जेण्डर एण्ड मैथड, 1996

निष्कर्ष

एम एन श्रीनिवास से संबंधित महत्वपूर्ण जानकारी आपको इस पोस्ट के माध्यम से दे दी गई है श्रीनिवास की इस मान्यता का कि पश्चिमी शिक्षा, औद्योगीकरण आदि संस्कृतीकरण को बढ़ावा देते हैं, का विरोध करते हुए विद्वानों ने कहा कि इस प्रक्रिया से संस्कृतीकरण की अपेक्षा असंस्कृतीकरण को दृढ़ता मिलती है। अनेक उच्च जातियों ने अपने परम्परागत आदर्श छोड़ दिए हैं।

FAQ

Q. एमएन श्रीनिवास ने क्या किया?

A. एमएन श्रीनिवास को संरचनात्मक-कार्यात्मक दृष्टिकोण वाले क्षेत्र-उन्मुख इंडोलॉजिकल कार्यकर्ता के रूप में जाना जाता है। वह एआर रैडक्लिफ-ब्राउन और ब्रोनिस्लाव मालिनोवस्की दोनों के फील्डवर्क से काफी प्रभावित थे।

Q. एमएन श्रीनिवास के अनुसार संस्कृतिकरण क्या है?

A. एम. एन. श्रीनिवास के अनुसार, संस्कृतीकरण केवल नयी प्रथाओं और आदतों का अंगीकार करना ही नहीं है, बल्कि संस्कृत वाङ्मय में विद्यमान नये विचारों और मूल्यों के साथ साक्षात्कार करना भी इसमें आ जाता है।

Q. एम एन श्रीनिवास और गाँव कैसे संबन्धित है?

A. विभिन्न प्रकार के आर्थिक , सामाजिक तथा राजनीतिक सम्बन्धों से क्षेत्रीय स्तर पर जुड़े हुए थे ।

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