सत्य की खोज, रचना डा० सर्वपल्ली राधाकृष्णन्

By Arun Kumar

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सत्य की खोज

प्रारम्भिक जीवनमेरा जन्म ५ सितम्बर सन् १८८५ ई० में तिरुतणी नामक एक छोटे से स्थान पर हुआ था जो कि दक्षिण भारत में मद्रास नगर से उत्तर-पश्चिम में चालीस मील की दूरी पर है। मैं अपने माँ-बाप की दूसरी सन्तान हूँ ।

वे धार्मिक प्रवृत्ति के थे और उनके पास अधिक धन और सम्पत्ति नहीं थी। मेरे प्रारम्भिक जीवन के बारह वर्ष तिरुतणी और तिरुपट्टी नामक तीर्थस्थानों में व्यतीत हुए। न जाने क्यों मुझे सदैव से इस बाह्य जगत से परे एक ऐसे अज्ञात संसार के अस्तित्व में विश्वास रहा है जिसका अनुभव हम केवल आत्म-ज्ञान से कर सकते हैं, इन्द्रियों से नहीं । मेरा यह विश्वास कठिन से कठिन परीक्षाओं में भी अटल रहा है। मेरा मननशील स्वभाव सम्भवतः मेरे एकान्त- प्रिय होने का कारण है । सांसारिक- जीवन के अतिरिक्त मेरा एकान्त जीवन भी है जिसमें रहना। मुक्त अधिक प्रिय है ।

पुस्तकें हमारे सम्मुख जीवन के रहस्य खोलतीं तथा भव्य म उपस्थित करती हैं । प्रारम्भ से ही मेरा उनके साथ घनिष्ट सम्बन्ध रहा है । प्रायः लोग प्रचलित सामाजिक समारोहों में सम्मिलित होकर अपने दुःखों को भूल जाते हैं । परन्तु मुझे कभी इन समारोहों में विशेष आनन्द नहीं आया । भली-भाँति परिचित दो-एक व्यक्तियों के साथ तो बात और है पर इससे अधिक लोगों के बीच मै विशेष चेष्टा करने पर ही अपना काम चला पाता हूँ । मुझमें एक विशेषता यह है कि आवश्यकता पड़ने पर मैं छोटे या बड़े, बूढ़े या युवक सबके साथ पूर्ण रूप से हल मिल जाता हूँ। सचमुच मै पू और एकान्त-प्रेमी हूँ परन्तु लोग प्रायः मुझे मिलनसार और सामाजिक प्राणी समझते हैं । मेरे बारे में यह प्रसिद्ध है कि मुझे समझना कठिन है । वास्तव में इसका कारण मेरा संकोच- शील स्वभाव और सामाजिक कार्यों में प हैं । मेरे बारे में यह भी कहा जाता है कि मैं दृढ़ सङ्कल्प वाला हूँ और सहज ही मेरे ऊपर कोई प्रभाव नहीं पड़ता । परन्तु मैं जानता हूँ मैं इसके सर्वथा विपरीत हूँ। मैं अत्यन्त भावुक हूँ और अपनी इस भावुकता को बहुधा छिपाने की चेष्टा करता हूँ। मैं अस्थिर मति और भावुक स्वभाव का हूँ तथा मेरी मानसिक प्रतिभा साधारण है।

इतने पर भी अगर सम्पादक महोदय मुझसे अपने बारे में कुछ लिखने को कहते हैं तो मैं इसे अपना सौभाग्य ही समझता हूँ । जब नेपोलियन की तीव्र दृष्टि उन अफसरों की नामावली पर पड़ती थी जिनको उन्नति के लिये प्रस्तुत किया जाता था तो वह किसी नाम के पास हासिये में घसीट देता था “क्या वह भाग्यशाली है ?” भाग्य मेरे साथ है और अब तक यही मेरी रक्षा करता रहा है। ऐसा लगता है कि जिन तूफानों के बीच अनेक चट्टानों से टकराकर अन्य नौकाएं चकनाचूर हो गई हैं उन्हीं के बीच होकर कोई मल्लाह बड़ी सावधानी के साथ मेरी नौका खे रहा है। मुझे ऐसा अनुभव होता है कि कोई अज्ञात शक्ति किसी महान उद्देश्य को लेकर मेरा पथ-प्रदर्शन करती रही है। मैं ऐसा नहीं कहता कि भग- वान् की मेरे ऊपर कोई विशेष कृपा है। अगर इसका अर्थ यह लगाया जाय कि वह महान् शक्ति कुछ मनुष्यों का बड़ा ध्यान रखती है और उनके जीवन में व्यक्तिगत रुचि रखती है तथा उसका प्रेम भी व्यक्तिगत तथा घनिष्ट है तो यह एक मूर्खता – पूर्ण बात होगी । मैं यह मानता हूँ कि जीवन में थोड़ी बहुत जो कुछ भी सफलता मुझे प्राप्त हुई है उसमें भाग्य का बड़ा हाथ रहा है।

पर मैं यह नहीं चाहता कि अपनी असफलताओं का दोष भाग्य या परिस्थिति के सिर पर मढ़ दूँ । सच बात यह है कि मेरी सफलतायें पूर्णरूप से मेरे ही कारण नहीं हुई हैं । परन्तु असफलताओं के लिये मेरे निजी दोष ही उत्तर- दायी हैं।

गृह-जीवन

” अगर मनुष्य को अपनी रुचि के अनुकूल कार्य मिल जाय तथा ऐसी पत्नी मिल जाये जिससे वह प्रेम कर सके तो यह उसके जीवन की एक बड़ी सफलता है ।” मुझे अपने बचपन के बाद के जीवन में दार्शनिक हेगेल के उपरोक्त कथन का प्रायः स्मरण हो आता है । एक ओर पुरुष अपना जीवन राजनीति, व्यापार, प्रेम तथा अन्य सांसारिक कार्यों में व्यतीत करता हुआ जीवन का अधिक से अधिक आनन्द लेना चाहता है, दूसरी ओर स्त्रियों को जिनके अन्दर पुरुषों की अपेक्षा कम पाखण्ड होता है, तथा जो यथार्थ के अधिक समीप होती हैं, इस बात का विश्वास होता है कि जीवन का सच्चा श्रर्थ बाह्य क्रिया-कलापों तक ही सीमित नहीं है। जीवन में जो सत्य है उसको वे अधिक गहराई से देखती हैं। इसलिये उनके लिये जीवन नीरस तथा अनाकर्षक नहीं रहता। प्रकृतिवादियों का कहना है कि हम संसार में जो कुछ देखते तथा स्पर्श करते हैं वही सत्य है ।

परन्तु आदर्शवादियों को कुछ उच्च तथा सार्व- कालिक तत्वों में विश्वास होता है। प्रकृतिवादियां और आदर्श- वादियों के बीच जो संघर्ष चल रहा है उसमें भारतीय स्त्रियाँ आदर्शवाद की ओर से लड़ रही हैं। वे शिक्षा देने की अपेक्षा अपना उदाहरण उपस्थिति करना और बातें करने की अपेक्षा उन बातों को आवरण में लाना अधिक अच्छा समझती हैं। इस प्रकार उन्होंने हमारे दैनिक जीवन में होने वाली नित्य- प्रति की घटनाओं को अधिक महत्वपूर्ण बना दिया है।

जिस उम्र में पश्चिम के देशों में प्रायः विवाह होते हैं उससे कहीं पहले मेरी पीढ़ी तथा श्ररेणी के बहुत से लोगों के विवाह भारत में हो चुके थे । पर ये सभी बाल-विवाह असफल नहीं कहे जा सकते । हिन्दू-संस्कृति में पत्नी का जो उच्च तथा महान् आदर्श है उसका अमिट प्रभाव यहाँ की सरल स्वभाव वाली स्त्रियों पर अभी तक पड़ा हुआ है। “अगर पति विश्वासघात करता है तब भी मुझे स्वामिभक्त रहना चाहिये, अगर पति का मेरे ऊपर से विश्वास उठ गया है तब भी मुझे अपना प्रेम निरन्तर बनाये रखना चाहिये, अगर पति किसी अन्य स्त्री से प्रेम करने लगा है तब भी मुझे उसकी प्रतीक्षा करनी चाहिये ।”

अगर इस अंधभक्ति में कुछ भी दोष है तो यही दोष उस महान् शक्ति में भी है जो हमसे उसी प्रकार प्रेम करता है तथा बड़े धैर्य के साथ हमारी उस दिन की प्रतीक्षा करता है जब हम संसार के क्षणिक सुखों से तक आकर उसके पास लौटेंगे। एक ऐसा निश्चल तथा पवित्र प्रेम जो अपने प्रेम-पात्र के दोषों पर विजय प्राप्त कर लेता है शायद सबसे बड़ी स्वर्गीय देन है। भारतीय वैवाहिक- जीवन गम्भीर प्रेम तथा मृदुता से पूर्ण है । इस देश की व्यव स्थापिका सभाओं ने सामाजिक रीति-रिवालों में कोई हस्तक्षेप नहीं किया है। इस कारण वे रीति-रिवाज स्थायी बन गये हैं । अगर इन रीति-रिवाजों में समयानुकूल थोड़े से परिवर्तन कर दिये जायँ तो भारतीय वैवाहिक जीवन का महत्व अधिक बढ़ सकता है। भारतीय नारी को अपने मन और शरीर की सुरक्षा के हेतु जो कुछ भी आश्वासन प्राप्त है वह सब कुछ उनके पतियों की सद्भावना ही हैं । हमारी वर्तमान परिस्थितियों में यह काफी नहीं है ।

दर्शन और धर्म

क्रिश्चियन मिशनरी संस्थाओं में मैंने स्कूल और कालेज की शिक्षा प्राप्त की । अपने जीवन के महत्वपूर्ण काल में मुझे ‘रेखामेन्ट’ की शिक्षाओं से परिचय होने के साथ ही ईसाई प्रचारकों की उन आलोचनाओं का भी ज्ञान हो गया जो वे भार- तीय धर्म और रीति-रिवाजों की करते थे। स्वामी विवेकानन्द के भाषणों और साहसपूर्ण कार्यों का मुझ पर बड़ा प्रभाव पड़ा और मैं अपने हिन्दू धर्म पर गर्व करने लगा।

लेकिन ईसाइयों की संस्थाओं में हिन्दू धर्म के साथ जो दुर्व्यवहार होता था उसके कारण मेरे हृदय को बड़ी चोट पहुंचती थी। हमारे सम्पूर्ण ज्ञान और कर्म का आधार भारतीय संस्कृति है। जिन तपस्वियों और शिक्षकों ने संसार को ऐसी महान संस्कृति दी और उसके साथ संसार का सम्पर्क स्थापित किया वे वास्तव में धर्मात्मा नहीं थे – यह बात मेरी समझ में आती ही नहीं थी । मुझे तो ऐसा लगता था कि भारत के गरीब और अशिक्षित ग्रामीण जो अपने गाईस्य जीवन में प्राचीन परम्परागत रीति- रिवाजों और धार्मिक प्रथाओं का आश्रय लिये हुए हैं वे भी उन स्वच्छन्दगामी विलासी और बुद्धिजीवियों से हैं जो जीवन में बड़ी-बड़ी कामनायें रखते हैं।

मानव-जीवन में जो सच्चाइयाँ हैं तथा सभी युगों के समझदार लोगों ने जिनको स्वीकार किया है उन चाइयों को ये लोग अच्छी तरह जानते हैं। जीवन छोटा है और उसमें सुख अनिश्चित है । राजा से लेकर साधारण किसान तक सभी की मृत्यु होती है। अपने अज्ञान का अनुभव होना ही रुचा ज्ञान है। धन की अपेक्षा सन्तोष श्रेष्ठ है। बड़ी-बड़ी सभा में भाषण देकर जनता से प्रशसा प्राप्त करने की अपेक्षा मन की शान्ति आम है। यह ठीक हैं कि भारतीय नारी के हृदय में अन्ध विश्वास और भय घर किये हुए हैं परन्तु सैकड़ों वर्षों की शिक्षा के परिणाम स्वरूप उन्होंने एक ऐसा सम्मान, महत्ता, पवित्रता और मानसिक सन्तुलन प्राप्त कर लिया है जो कि अनेक तत्तकालीन बुद्धि- वादी नारियों में दृष्टिगोचर नहीं होता । एक साधारण प्रामीण जो अपने जीवन भर की सारी कमाई गंगा स्नान या पुरी में देव दर्शन के लिये व्यय कर देता है, जो बड़े दुःख एवं कष्ट उठाकर बनारस या कैलाश की तीर्थ यात्रा करता है उसे इस बात का दृढ़ विश्वास होता है कि मानव-जीवन में केवल रोटी ही सब कुछ नहीं है ।

वर्तमान युग कृत्रिमता का युग है। यह युग अपनी सभ्यता के नशे में देवताओं और पिशाचों का, मूल्यों और आदर्शों का उपहास करता है। प्राचीन अंध विश्वासों को कोई महत्व नहीं देता। लेकिन हम उन अशिक्षित हिन्दुओं की हंसी नहीं सकते जो इन वस्तुओं को हमारे उन विचारों का प्रतीक मानते हैं जिन्हें बुद्धि से नहीं समझा जा सकता। मैं जानता हूँ कि भारत के लोग घातक अन्ध-विश्वासों के शिकार हैं। परन्तु मैं यह स्वीकार नहीं कर सकता कि उनमें धार्मिकता का अभाव है । इस देश की प्रत्येक माता अपने बच्च े को धार्मिक शिक्षा देते हुए कहती है कि उसे ईश्वर से प्रेम करना चाहिये; पाप से दूर रहना चाहिये; जो लोग कट- पीड़ित हैं उनके साथ सहानुभूति रखनी और सहायता करनी चाहिये । हमने अपने समय का सदुपयोग करने के लिये असंख्य साधन खोज निकाले हैं। क्या यह सच नहीं है कि प्राचीन हिन्दू का मार्ग सब से अधिक बुद्धि- मतापूर्ण है ? उन सार्वकालिक आदर्शों का मनन करना, ज्ञान द्वारा दिव्यता की प्राप्ति के लिये संघर्ष करना और पूर्णत्व के प्रतिविम्व में आनन्द लेना – क्या इस प्रकार का जीवन घृणित कहा जा सकता है ?

मुक्त धर्म में प्रेम रहा है। इसलिये मैं कभी उन बातों को अपवित्र तथा अविवेकपूर्ण नहीं कह सकता जिनको मनुष्य की आत्मा पवित्र समझती है । सब सम्प्रदायों का सम्मान करना और आध्यात्मिक विषयों में सबके साथ सद्व्यवहार करना – ये दोनों बातें सैकड़ों वर्षों के अनुभव से हिन्दू परम्परा द्वारा हमारी नस-नस में समा गई हैं। प्रारम्भ से ही हिन्दू- संस्कृति में धार्मिक सहिष्णुता दृष्टिगोचर होती है। जब वैदिक- युग के आयों का अन्य सम्प्रदाय के लोगों के साथ सम्पर्क हुआ तो उन्होंने शीघ्र ही अपने को नवीन विचारों के अनु- कूल बना लिया। वैदिक धर्म को अपनी विशेषता का निर्माण करने में विदेशी तत्वों से बड़ी सामग्री तथा प्रोत्साहन प्राप्त हुआ । हिन्दुओं के प्रसिद्ध धर्म ग्रन्थ भगवद्गीता में स्पष्ट लिखा है कि जो व्यक्ति किसी देवता में विश्वास करता तथा उसकी भक्ति करता है वह वास्तव में परमात्मा की ही भक्ति करता है। धर्म का उद्देश्य ईश्वर का ज्ञान प्राप्त करना है ।

ईश्वर के विषय में जितने मत हैं वे सब उन साधकों के पथ- प्रदर्शन के लिये हैं जो अपने लक्ष्य तक नहीं पहुँचे हैं। वे कुछ रूपों में ईश्वर के गुणों का प्रतिनिधित्व करते हैं – ईश्वर – का नहीं । ईसाई देशों में ईश्वर का पिता का जो रूप था वह – मध्य युग में माता का रूप बन गया। मेरिओलेट्री में ईश्वर को “स्वर्ग की रानी जो अपनी इच्छा के अनुसार सब कुछ कर सकती है” कहा गया है। कोई भी ऐसा सूत्र नहीं जिसमें ईश्वर को बांध दिया जाय। जो कुछ भी ज्ञान हम प्राप्त कर सकते हैं वह सब हमारे विकास के ऊपर निर्भर होता है । संकुचित दृष्टिकोण वाले व्यक्ति को एक महान् सत्य नहीं समझाया जा सकता। जब जीवन का दृष्टिकोण कुछ व्यापक किया जाता है तब वह सत्य जो पहले अपूर्ण था अधिक पूर्ण रूप में दिखाई पड़ने लगता है। सच्चा गुरु हमारे अंत- ज्ञान को बढ़ाता है, दृष्टिकोण को घदलता नहीं। वह हमें शास्त्रों का अधिक अच्छे ढंग से अध्ययन करने के योग्य बनाता है।

उल्लेख है “मनुष्य जिस किसी भी मार्ग का अवलम्बन करता है वह मेरे तक पहुँचने के लिये ही है ।” विभिन्न प्रकार के जो धर्म हैं उनमें आपस में कोई विरोध या संघर्ष नहीं है। वे सब उस महान् कार्य को सम्पन्न करने के लिये एक दूसरे के सहायक ही हैं। कोई भी धर्म ऐसा नहीं है जिसमें लोगों ने ईश्वर का साक्षात्कार न किया हो । एलेग्जेन्डिया के क्लीमेंट का कथन है कि सब बुद्धिमान् लोगों के हृदय में उस सर्वशक्तिशाली परमात्मा का स्वाभाविक प्रकाश होता है। ऐसे ही धार्मिक वातावरण में मेरा विकास हुआ था।

मुझे इस बात से बड़ा क्षोभ होता था कि बहुत से ईसाई प्रचारक जो वास्तव में धर्मात्मा थे उन धार्मिक सिद्धांतों का उपहास करते थे जिनको अन्य लोग बड़ी श्रद्धां की दृष्टि से देखते थे। मेरे विचार से इस दुर्भाग्यपूर्ण प्रथा का ईसा के जीवन और उसकी शिक्षाओं में कोई समर्थन नहीं मिलता। हाँ, बाद में उनके कुछ अनुयायियों ने इसको प्रोत्साहन दिया। श्रगस्टिन के कथनानुसार बाइबिल के बाहर जो धार्मिक सत्य हैं उनका निर्माण करने वाला शैतान । जो लोग सब धर्मों का गम्भीरता पूर्वक अध्ययन करते हैं वे ईश्वर के सामान्य ज्ञान से अवश्य प्रभावित होते हैं । ईश्वर के विषय में जो सत्य हैं उनका उद्गम स्थान ईश्वर ही है। जिन लोगों की यह धारणा है कि उन्हीं के धर्म में ईश्वर का सच्चा ज्ञान है वे गलती पर हैं। ऐसा विचार ईश्वर के प्रेम और न्याय के विरुद्ध है । हमारा धर्म ही सर्वश्रेष्ठ है और अन्य सभी धर्मों का हमारे धर्म में समावेश हो जाता है यह बात कुछ धर्म-प्रेमी लोगों के मन में बैठी हुई है। संसार की नवीन व्यवस्था में अध्यात्म के क्षेत्र में ऐसे एका- धिकार को कोई स्थान नहीं ।

ईसाई आलोचकों द्वारा की गई हिन्दू धर्म की आलोचना ने मुझे हिन्दू धर्म का अध्ययन करने के लिये तथा उसके जीवित एवं नष्ट तत्वों का अन्वेषण करने के लिये विवश किया। समय के प्रवाह ने मेरे इस निश्चय को और भी दृढ़ बना दिया । मद्रास विश्वविद्यालय में बी० ए० और एम० ए० की परीक्षा में दर्शन शास्त्र का जो त्रिपय पढ़ाया जाता था उसमें भारतीय दर्शन – शास्त्र एवं धर्म का ज्ञान श्रावश्यक नहीं समझा जाता था । आजकल भी भारतीय विश्वविद्यालयों में भारतीय दर्शन – शास्त्र की बहुत कम शिक्षा दी जाती है । एम० ए० की परीक्षा के लिये मैंने “वेदान्त में नीति-शस्त्र” (Ethics of the Vedant) नामक शास्त्रार्थ का विषय ( थीसिस ) तैयार किया ।

आलोचकों का कहना है कि वेदान्त में नीति-शास्त्र का अभाव है । मेरा यह प्रन्थ ऐसी ही आलोचना के उत्तर में था । इस ग्रन्थ की रचना के समय (सन् १९०८ ) में एक बीस वर्ष की आयु का विद्यार्थी था । पुस्तक के मुखपृष्ठ पर मेरा नाम प्रकाशित हुआ । यह देखकर मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई । लेकिन अब मैं जब कभी उस बचपन की अलंकारपूर्ण कृति को देखता हूँ तो मुझे शर्म आती है कि मैंने कभी ऐसा ग्रन्थ भी लिखा था । प्रोफेसर ए० जी० हौग ने जोकि आजकल मद्रास क्रिश्चियन कालिज में प्रिन्सिपल का कार्य करते हैं तथा धार्मिक विषयों में बड़ी सूक्ष्म दृष्टि से विचार करते हैं मुझे एक प्रमाण-पत्र दिया जो आज भी मेरे पास सुरक्षित है। इस प्रमाण-पत्र में उन्होंने लिखा था “इस डिग्री के लिये अपने शिक्षण काल के द्वितीय वर्ष में जो थीसिस उसने तैयार की है उसे पढ़ने से प्रकट होता है कि उसको दार्शनिक समस्याओं के प्रमुख अङ्गों का विशेष ज्ञान है । अगरेजी भाषा पर अच्छा अधिकार होने के साथ ही उलझे हुई तर्कों को समझने की भी योग्यता है” उस थे. सिस द्वारा कम से कम मेरी सामान्य विचार-धारा का पता लगता है। जीवन को उचित ढंग से व्यतीत करने का कार्य धर्म द्वारा सम्पन्न होता है ।

अगर हम श्रात्मा को सन्तुष्ट रखना चाहते हैं और उसे बन्धन मुक्त करना चाहते हैं तो धार्मिक-शिक्षा को अच्छी तरह देकर उसकी जड़े मजबूत करनी होंगी। फिर धर्म अपने को युक्ति-सङ्गत विचारों, फल पूर्ण कार्यों और उचित सामाजिक नियमों द्वारा प्रकट करेगा ।

सन् १९०६ में जब से मेरी नियुक्ति मद्रास प्रेसीडेन्सी कालेज में दर्शन – शास्त्र के विभाग में हुई है तब से मैं दर्शन- शास्त्र का अध्यापक रहा हूँ और भारतीय दर्शन तथा धर्म का गम्भीरता पूर्वक अध्ययन करता रहा हूँ। मुझे शीघ्र ही इस बात विश्वास हो गया कि धर्म एक स्वतन्त्र अनुभव है जिसको किसी अन्य वस्तु से नहीं मिलाया जा सकता । यद्यपि यह सत्य है कि धर्म अपने को नीति शास्त्र के उच्च नियमों में प्रकट करता है परन्तु तो भी नीति-शास्त्र, धर्म से पृथक वस्तु है । वास्तव में धर्म का मनुष्य के आन्तरिक जीवन से सम्बन्ध उसका उद्देश्य तो यह है कि मनुष्य शुद्ध आध्यात्मिक जीवन व्यतीत करे और अपने जीवन को निरर्थक बातों और निराशा से बचावे । धर्म की परीक्षा उसी के माप- ड से की जा सकती है। क्या धर्म मानव-जीवन के मूल्यों को सुरक्षित रखता, जीवन को अर्थपूर्ण बनाता और मनुष्य में विश्वास पैदा करता ? इस प्रकार धर्म की परीक्षा उसी के मापदण्ड से की जा सकती है। धर्म की जड़ें मनुष्य की आत्मा में हैं जो भावना, सङ्कल्प, शक्ति और बुद्धि से गहरी हैं । श्रात्मा के अन्त में ईश्वरीय प्रकाश दृष्टिगोचर होता है । “ईश्वर ने उस अनन्त शक्ति को मनुष्य के हृदय में स्थापित किया है ।” धर्मोपदेशक ऐसा कहते हैं । उस असीमित शक्ति का ज्ञान ही धर्म का आधार । मनुष्य की चेतना उन वस्तुओं से सन्तुष्ट नहीं होती जिन्हें आँखें देख सकती हैं और कान सुन सकते हैं। जब यह चेतना परिष्कृत हो जाती है तब वह हमें भौतिक जीवन से परे के जीवन में ले जाती है । मनुष्य चाहे कितना ही नीतिमान क्यों न हो और चाहे कितनी ही साव- धानी के साथ पुण्य कर्म क्यों न करे पर यदि उसको संसार के आध्यात्मिक उद्देश्य में विश्वास नहीं है तो वास्तव में वह ‘धर्मात्मा नहीं कहला सकता। धर्म सत्य के स्वरूप का वह पदार्थ-ज्ञान, अन्तर्ज्ञान या सूक्ष्म पर्यवेक्षण है जो केवल कम या अधिक बुद्धि के लोगों को ही सन्तुष्ट नहीं करता वर जोन् अपनी महत्ता का अनुभव कराने के लिये तथा संरक्षण के लिये हमारी आत्मा का सम्पर्क एक महान शक्ति के साथ कर देता है । इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिये तीव्र आध्यात्मिक साधना और नैतिक-कर्म आवश्यक हैं। ईश्वर का दर्शन करने के लिये हृदय पवित्र होना चाहिये । सत्य के ज्ञान के लिये पाण्डित्य श्रावश्यक नहीं है । उसके लिये बालक का हृदय आवश्यक है । मन को पवित्र करने के लिये नैतिक कर्म-काण्ड का निर्माण हुआ है जिसके अनुकूल आचरण करने पर ईश्वर का साक्षात्कार किया जा सकता है। जब मनुष्य अपने लक्ष्य तक पहुँचता है तो आत्मा का प्रकाश होता है जिससे सारा जीवन जगमगा उठता है तब मनुष्य के अन्दर नैतिक चरित्र और महान शक्ति आजाती है।

हिन्दुओं के कार्यों की चाहे कितनी ही आलोचना क्यों न की जाय पर हम हिन्दू धर्म को केवल परलौकिक जीवन का नहीं कह सकते। हिन्दू-धर्म के अनुसार धर्म का उद्देश्य ईश्वर का दर्शन या ज्ञान प्राप्त करना है और नीति-शास्त्र का लक्ष्य उस ईश्वरीय नियम के अनुकूल आचरण करना है। दोनों का एक दूसरे से घनिष्ठ सम्बन्ध है उस असीमित शक्ति की चेतना उस आदर्श के प्रति प्रोत्साहन मात्र है । यह चेतना सदाचार और पवित्रता की उत्कट भावना में प्रकट होती है। आध्यात्मिक दृष्टि और सदाचार की कामना साथ-साथ चलते हैं।महाभारत के एक श्लोक में कहा गया है कि आर्यों की विशेषता पाण्डित्य या धर्म नहीं है। वह तो आचरण है । भारतीय दर्शन मानव-जीवन से पृथक वस्तु नहीं है। मानव सभ्यता का उससे घनिष्ठ सम्बन्ध है। भारतीय सभ्यता सामा-

15 से बाकी

निष्कर्ष

हिन्दू-धर्म के अनुसार धर्म का उद्देश्य ईश्वर का दर्शन या ज्ञान प्राप्त करना है और नीति-शास्त्र का लक्ष्य उस ईश्वरीय नियम के अनुकूल आचरण करना है। दोनों का एक दूसरे से घनिष्ठ सम्बन्ध है उस असीमित शक्ति की चेतना उस आदर्श के प्रति प्रोत्साहन मात्र है । को इस पोस्ट के माध्यम से आपको बताया गया है। जो की यह पूरा पोस्ट रचना डा० सर्वपल्ली राधाकृष्णन् द्वारा ही है। इस में टीम का कोई विशेष योगदान नही है।

FAQ

Q. सत्य की खोज करने कौन आया था?

A. धार्मिक और दार्शनिक दृष्टिकोण से, विश्व के अनेक धर्मों और दर्शनों के संस्थापक ने सत्य की खोज की

Q. जीवन का सत्य क्या है?

A. यह सत्य है कि जब हम धर्म के मार्ग से विरत होते है तभी गलत मार्ग पर जाते है।

Q. मनुष्य का अंतिम सत्य क्या है?

A. नीतिशास्त्रों में कहा गया है कि जीवन और मरण इस संसार का शाश्वत सत्य है। जो जन्म लेता है, उसकी एक-न-एक दिन मृत्यु होनी ही है।

Arun Kumar

Arun Kumar is a senior editor and writer at www.bhartiyasarokar.com. With over 4 years of experience, he is adept at crafting insightful articles on education, government schemes, employment opportunities and current affairs.

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