Upnayan Sanskar: अथर्ववेद में उपनयन संस्कार अर्थ ब्रहमचारी द्वारा शिक्षाग्रहण करने तथा ब्रहाचारी को वेदों की दीक्षा होने से है। स्मृतिकाल में उपनयन संस्कार के अन्तर्गत विद्याध्ययन की अपेक्षा गायत्री मन्त्र द्वारा द्वितीय जन्म की धारणा को अधिक महत्व दिया जाने लगा और आगे चलकर उपनयन का अर्थ उस कृत्य से समझा जाने लगा, जिसके द्वारा बालक को आचार्य के समीप ले जाया जाये।
याज्ञवल्क्य के अनुसार भी उपनयन संस्कार का सर्वोच्च उद्देश्यों वेदों का अध्ययन आरम्भ करना है। वेदों के अध्ययन से सम्बन्धित होने के कारण ही इस संस्कार की अनुमति केवल द्विजों को ही दी गयी है, जिनमें ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य आते हैं। जबकि शूद्रों को इस संस्कार से वंचितः रखा गया है।
मूलतः यह यह संस्था अन्धे, बहरे एवं गूंगे व्यक्तियों के लिए भी वर्जित था।उपनयन संस्कार की आयु के बारे में कुछ मतभेद पाया जाता है। गृह्यसूत्रों के अनुसार ब्राह्मण बालक के लिये उम्र के आठवें वर्ष में, क्षत्रिय बालक के ग्यारहवें वर्ष में और वैश्य बालक के बारहवें वर्ष में उपनयन संस्कार का विधान रखा गया है।
सोलह वर्ष की आयु
जबकि बौधायन के अनुसार एक ब्राह्मण बालक का उपनयन संस्कार आठ से लेकर सोलह वर्ष की आयु तक किसी भी समय किया जा सकता है। उपनयन संस्कार किसी भी समय हो, लेकिन इसे प्रत्येक द्विज के लिये अनिवार्य माना गया है।
अन्तिम आयु सीमा
इसकी अन्तिम आयु सीमा ब्राह्मणों के लिये 16 वर्ष, क्षत्रियों के लिये 22 वर्ष और वैश्यों के लिये 24 वर्ष की है, क्योंकि इसके बाद व्यक्ति विवाह योग्य हो जाता है।उपनयन संस्कार का महत्व किसी भी अन्य संस्कार की अपेक्षा कहीं अधिक है। यह संस्कार व्यक्ति को एक त्यागमय जीवन की ही शिक्षा नहीं देता, बल्कि इसके माध्यम से व्यक्ति को दायित्व निर्वाह कीं भी प्रेरणा दी जाती है। बालक के जीवन को अनुशासित बनाने तथा ज्ञानार्जन के महत्व को स्पष्ट करने में भी यह संस्कार प्रतीकात्मक विधानों की सहायता से बच्चे में ऐसी क्षमता उत्पन्न करता है जिससे वह सभ्यता और संस्कृति की रक्षा करने में अपना योगदान दे सके।
डॉ० राजबली पाण्डेय का कथन है कि –
“यह संस्कार एक प्रकार से हिन्दुओं के विशाल साहित्य भण्डार के ज्ञान का प्रवेश-पत्र था।”
इसका तात्पर्य है कि इस संस्कार के बिना न तो उसे किसी आर्यकन्या से विवाह करने की अनुमति मिल सकती थी। यही कारण है कि आधुनिक जीवन में अनेक संस्कारों का प्रचलन व्यावहारिक रूप से समाप्त हो जाने के बाद भी उपनयन संस्कार (Upanayan Sanskar) कुछ संशोधन और संक्षिप्तीकरण के साथ आज भी प्रत्येक हिन्दू के जीवन का अनिवार्य अंग बना हुआ है।