योग का अर्थ, परिभाषाएँ, इसके विचारधाराए, प्रकारों व विशेषताओं..

By Arun Kumar

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योग का अर्थ (Meaning of Yoga)

‘योग’ एक व्यापक शब्द है। संस्कृत भाषा की ‘युज्’ धातु से ‘योग’ शब्द की उत्पत्ति हुई, जिसका अर्थ है-जोड़ना। ‘युज समाधौं’ धातु से ‘धन्य’ प्रत्यय लगाकर हुई है। इसके अर्थ हैं- बाँधना, एकत्र करना, जुटाना, संयोग करना अर्थात् समाधि अवस्था की प्राप्ति के लिए प्रक्रिया।

योग के दो प्रमुख अर्थ हैं

पहला अर्थ – जीव व ईश्वर या आत्मा व परमात्मा का मिलन या अद्वैतिक अनुभूति एवं

दूसरा अर्थ है- चित्तवृत्तियों को अभ्यास व वैराग्य से एकाग्र करने की प्रक्रिया। महर्षि व्यास के अनुसार योग का अर्थ समाधि है क्योंकि समाधि अवस्था में पहुँच कर चित्तवृत्तियों का पूर्णतः निरोध सम्भव है तथा यह स्थिति परमात्मा से तादात्म्य बना सकती है।

भारतीय ऋषिमुनियों की अनमोल धरोहरों में से योग एक महत्वपूर्ण विद्या है। श्रुतियों, स्मृतियों व शास्त्रों में योग की महिमा का वर्णन है।

ऋषि पाणिनी ने योग लगाते हुए-‘युज समाधौ’, ‘युजिरयोगे‘, ‘युज संयमेन’ अर्थात् संयमपूर्ण साधना करते हुए स्वयं की चेतना को परम-चेतना में विलीन कर देना ही योग है। महर्षि पतंजलि ने कहा है- “योगश्चित्तवृत्ति निरोधः” अर्थात् चित्त की वृत्तियों को रोकना ही योग है।

योग की परिभाषाएँ(Definitions of Yoga)

महर्षि वशिष्ठ कहते हैं, “संसार नामक सागर से पार होने की मुक्ति की युक्ति का नाम योग है।

अमृतनादोपनिषद् (28) की परिभाषा “भय, क्रोध, आलस्य, अत्यधिक भोजन,अधिक जागना, आदि समस्त दुर्गुणों को योगी हमेशा के लिए परित्याग कर दें।

गीता में भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा है-“योग, कर्मसु कौशलम् अर्थात् कर्म के करने में जो कुशलता है, उसी का नाम योग है।”

योग की विचारधाराएँ(Ideologies of Yoga)

भारत देश में तीन मुख्य धाराएँ हैं जिनके द्वारा योग के सम्बन्ध में विचार अभिव्यक्त किये गये हैं। ये तीनों विचारधाराएँ अग्र प्रकार हैं-

1. वेदमूलक धारा– ऐतिहासिक दृष्टि से यह विचारधारा सबसे प्राचीन है। जो लोग इस विचारधारा से सम्बद्ध हैं उनके लिए वेद अन्तिम प्रमाण है। वेद और सभी प्रधान टीकाएँ व व्याख्याएँ संस्कृत में हैं एवं वेद पर आधारित दूसरे सभी ग्रन्थ भी संस्कृत में ही हैं। इसी क्रम में रामायण, महाभारत, पुराण, स्मृतियों व धर्मशास्त्रों को गणना होती है और ये सभी ग्रन्थ योग चर्चाओं से भरे हुए हैं। इनमें योगियों की कथाएँ एवं योगाभ्यास से सम्बन्धित उपदेश विस्तार से मिलते हैं। योग विषय पर स्वतन्त्र ग्रन्थ भी हैं। देवी-देवताओं के वर्णन में योगिगम्य होने व विभूति युक्त होने का उल्लेख मिलता है।

2. बौद्ध धारा– भगवान् बुद्ध के उपदेशों व आदेशों का संग्रह ग्रन्थ पालि भाषा में है परन्तु साहित्य संस्कृत में है। बुद्ध धारा के ग्रन्थों में योग व योगियों की चर्चाएँ भरी हुई हैं। बुद्ध-जीवन योग का ज्वलन्त समर्थन करता है। जिस मार्ग का बुद्ध द्वारा प्रसार किया गया है वह योग-साधनाओं से प्राप्त किया गया था। उनके द्वारा अनेक बार योगाभ्यास पर उपदेश भी दिये गये।

3. जैन धारा– जैन धर्म के ग्रन्थ पालि भाषा में हैं और बाद में संस्कृत का भी विशाल साहित्य है। जैन धर्म में योग का स्थान तपश्चर्या ने लिया जिसमें जैन गृहस्थ तक लम्बे व्रत व उपवास करते हैं। इसी कारण से जैन धर्म में योग विषय पर कम चर्चा देखने को मिलती है।

भारत देश की कई ऐसी प्रबल उपधाराएँ निकली हैं जिनका प्रभाव और विस्तार अन्य देशों या किसी अन्य सम्प्रदाय की मुख्य धाराओं से किसी भी रूप में कम नहीं था।

योग के प्रमुख प्रकार(Main Types of Yoga)

दत्तात्रेय योगशास्त्र व योगराज उपनिषद् में योग के चार प्रकार बताए गए हैं। योगतत्वोपनिषद् में ये चतुर्विध योग निम्न प्रकार हैं-

(i) मन्त्रयोग –
मातृकारियुक्त मन्त्र को 12 वर्ष तक विधि के अनुसार जाप करने से साधक को अप्रिया आदि सिद्धियाँ प्राप्त हो जाती हैं। मुक्ति पाने के लिए योग एक महत्वपूर्ण साधन है।

(ii) हठयोग – इस योग में विभिन्न मुद्राओं, आसनों, प्राणायाम एवं बन्धों के अभ्यास द्वारा शरीर को निर्मल बनाया जाता है और मन को एकाग्र किया जाता है।

(iii) राजयोग– इस योग के अन्तर्गत यम-नियम आदि के अभ्यास से चित्त को निर्मल करना व ज्योतिर्मय आत्मा का साक्षात्कार करना आता है।

(iv) लययोग– यह योग दैनिक क्रियाओं को करते हुए ईश्वर का सदैव ध्यान करना है इसलिए इसे लययोग कहते हैं।

योग की विशेषताएँ(Characteristics of Yoga)

योग शब्द एक व्यापक शब्द है, इसकी विशेषताएँ सीमित नहीं हो सकतीं। योग की कुछ प्रमुख विशेषताएँ अग्र प्रकार हैं-

1. भारतीय दर्शन में योग– भारतीय दर्शन में योग दर्शन विचारधारा से यह स्पष्ट होता है कि ब्रह्माण्ड ईश्वर द्वारा निर्मित मनुष्य व प्रकृति के योग से बना है। प्रकृति, ईश्वर, मनुष्य, तीनों अनादि व अनन्त हैं। इस विचारधारा के अनुसार मानव जीवन का अन्तिम उद्देश्य परमानन्द की अनुभूति है जिसे अष्टांग योग साधना से प्राप्त किया जा सकता है।

2. अमूल्य भविष्य में योग – एक मूल्यवान विरासत कहलायेगा क्योंकि आधुनिक जीवन के पर्यावरण में विभिन्न दुःख, पीड़ा व व्याधियाँ हैं जिनकी मुक्ति योग से सम्भव है। स्वामी सत्यानन्द सरस्वती ने योग को वर्तमान की मूल्यवान विरासत बताया है।

3. योग-विज्ञान – ओशो कहते हैं कि “योग धर्म, आस्था एवं अन्धविश्वास से आगे है। यह एक सीधा विज्ञान व प्रायोगिक विज्ञान है। योग जीवन जीने की कला है। यह चिकित्सा पद्धति एवं पूर्ण मार्ग है। समस्त दर्शनों, विधियों, नीतियों, नियमों, धर्मों एवं व्यवस्थाओं में योग सर्वश्रेष्ठ है।

4. योग एक सम्पूर्णता– योग जीवन को सम्पूर्णता प्रदान करता है। योग में सशक्त शरीर जीवन का आधार है। इसमें शरीर-साधना को धर्म-साधना का मान दिया गया है। योग में शरीर का स्वस्थ रहना अत्यन्त महत्वपूर्ण है। योग साधना का मूल मन्त्र ‘साम्य स्थिति व साध्य’ है। योग जीवन जीने का तरीका सिखाता है और इसका अभ्यास जीवन को उत्सवमय बनाता है। योग जीवन से नीरसता का हास करता है।

Q. योग किसे कहते हैं और कितने प्रकार के होते हैं?

A. योग व्यक्ति के शरीर, मन, भावना और ऊर्जा के स्तर पर काम करता है। इसने योग के चार व्यापक वर्गीकरणों को जन्म दिया है: कर्म योग, जहां हम शरीर का उपयोग करते हैं; भक्ति योग, जहाँ हम भावनाओं का उपयोग करते हैं; ज्ञान योग, जहां हम मन और बुद्धि का उपयोग करते हैं; और क्रिया योग, जहां हम ऊर्जा का उपयोग करते हैं।

Q. योग का दूसरा अर्थ क्या है?

A. योग का तीसरा अंग आसन है। आसन मूल रूप से संस्कृत भाषा का शब्द है। जिसका अर्थ है, बैठकर विशेष क्रिया को संचालित करना।

Arun Kumar

Arun Kumar is a senior editor and writer at www.bhartiyasarokar.com. With over 4 years of experience, he is adept at crafting insightful articles on education, government schemes, employment opportunities and current affairs.

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